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बुधवार, 10 अक्तूबर 2012

तुम जा रही थी



















तुम जा रही थी..
स्टेशन के प्लेटफोर्म के एक कोने में खड़ा,
मैं बस तुम्हे देखे जा रहा था..
जिंदगी फिसली जा रही थी आँखों के सामने मेरे..
बेबस खड़ा मैं,
बस  तुम्हे देखे जा रहा था..
एक रुमाल से अपने आँखों के आंसू पोछ रहा था..
दिल  में एक अजीब सा दर्द उठा उस वक्त..
तुम्हारा वो खिला चेहरा, 
उस दिन खिला खिला मुझे नहीं लग रहा था..
उदासी साफ़ झलक रही थी चेहरे पे तुम्हारी..
और बेबस खड़ा मैं, एक कोने में, बस तुम्हें देखे जा रहा था...


एक शाम पहले जब तुमसे आखरी बार मिलके,
घर वापस आया था..
एक अजब सी बेचनी थी..
तुमने जो ग्रीटिंग कार्ड और वो एक फूल दिया था,
उसे मैं बस रात भर निहारे जा रहा था..
कुछ बातों में गुमसुम पूरी रात जागा रहा मैं...

वो शाम कितनी छोटी थी,
एक पल में ही गुज़र गयी..
समय तो मनो,
पंख लगा के उड़ रहा था उस शाम..


उसी शाम चलते चलते,
तुमने मेरा हाथ थामके कहा था,
की मैं वापस आउंगी..
ग्रीटिंग कार्ड के पन्ने के एक कोने पे भी,
यही लिखा था तुमने..
वो कार्ड आज भी मेरे पास है, साथ है..

उस दिन भी जब तुम जा रही थी,
अच्छा  तो बिलकुल नहीं लग रहा था..
एक पल सोचा की रोक लूँ आके तुम्हें
हाथ थाम अपने साथ कहीं ले चलूँ,
इस ज़माने से कहीं बहुत दूर..
पर मैं कमज़ोर था..ये कर न सका..

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