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बुधवार, 10 अक्टूबर 2012

कुछ नहीं एक सपना था


जिंदगी की राहों में अकेला ही चला जा रहा था मैं, मन में उमंग तो मेरे भी थी ही की काश मेरे पास भी कोई पतंग होती, आखिर मैं भी बच्चा था पतंग को लेकर मेरे भी सपने थे, मगर कहते है न सपने तो सपने होते है सपने कहाँ अपने होते है वैसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ।

जिंदगी की यूँ ही कटती शाम में एक दिन आसमान में एक पतंग नजर आई, पहली ही नजर में वो पतंग इतनी भा गयी की मेरे बावरे मन ने उस पतंग को पाने की सोच ली, बेरंग सी जिंदगी में उस पतंग को उड़ते देख ऐसा लगा जैसे इससे ज्यादा हसीं और रंगीन जिंदगी तो कभी भी नहीं हो सकती, जैसे जैसे हवा के साथ वो पतंग मेरी और आती ऐसा लगता आज तो ये मेरी होकर रहेगी,
मेरे मन ने उस पतंग को पाने के लिए खुले आसमान के नीचे भरी धुप में दोड़ लगाने की ठान ली, सोच लिया कुछ भी हो इसे पाने के eलिए कुछ भी करना मंजूर, ये भी याद नहीं रहा की वो पतंग अभी भी आसमान में उड़ रही है उसकी डोर अभी भी किसी के हाथ में हो सकती है।

और वही हुआ जहाँ मैं अकेला चल रहा था उस पतंग ने कुछ देर मेरी वीरान जिंदगी की शाम में रंग भरे और फिर उसकी डोर जिसके हाथ में थी उसने उसे अपनी और वापस खींच लिया ना पतंग का कुछ बिगड़ा जिसके हाथ में डोर थी उसका, किसी का कुछ हुआ तो उसका जिसने उस पतंग के साथ दोड़ने की आदत दाल ली क्यूंकि दोड़ते-२ वो इतना आगे आ गया कि सब पीछे रह गए जो कभी उसके साथ चलने तैयार थे....


कुछ नहीं एक सपना था या थी कोई हकीक़त..

4 दिन में जिंदगी से प्यार करने की आदत डलवा दी उसने.............

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