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गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

तुम कब लौटोगे..


 ना तमन्ना है जीने की ना मरने
का हौसला बचा है,
शायद मेरे नसीब ने ही ये चक्रव्यूह रचा है।
रात आती तो है पर जाती कभी नहीँ,
जैसे बना लिया है उसने
बसेरा मेरी जिंदगी को ही।
उदासीयाँ बैठी रहती हैं मेरे फूलों वाले सफेद
तकीए के पास,
बिस्तर का दहिना हिस्सा आज भी पाले है
तुम्हारे आने की आस।
घडी भी टिक-टिक
नहीं करती सुईयाँ सी चुभोती है कानों में,
रूह का खालीपन घसीट ले जाता है गुजरे
जमानों में।
बडे से कमरे की छोटी खिडकी कि चौखट
भी जर्जर हो गई है मेरी जिंदगी के जैसे,
मेज पर पडा खाली फ्रेम कुछ
कहना तो चाहता है पर कहे भी तो कैसे?
फटे होंठ हिलते भी तो हैं कराहें
ही निकलती हैं,
घर के हर कोने मे बस
तन्हाईयाँ ही पलती हैं।
अलमारी में कपडों के नीचे पडा मुडा हुआ
कागज थोडा सुकूँ पहूँचाता है,
तो कभी किताब में रखा सूखा गुलाब आँखे
भीगो जाता है।
प्यार सिर्फ प्यार ना रह कर बंदगी बन
गया है,
और ईंतजार भी ईंतजार ना रह कर
जिंदगी बन गया है।
तुम कब लौटोगे.. तुम कब लौटोगे.. या फिर
शायद.. कभी भी नहीं??????

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