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शनिवार, 15 सितंबर 2012

गरीब-ऐ-शहर

ऐ मुसाफिर!

ज़ख्म बीती यादों का सोने नहीं देता,
सांसों में भी खंजर चुभोये बेठें हैं;
इक तू ही आकर देख ले इस गरीब-ऐ-शहर की हालत,
कि खुदा को तो ख़ुद से रुठाये बेठें हैं;

बचपन कि जब सारी यादें विदा हुई,
क्यों किसी कि याद को दिल से लगाये बेठें हैं;

ढह गई हैं भरोसे कि कच्ची दीवारें सभी,
लोग हाथों में पत्थर अब उठाये बेठें हैं;

ये धूंआ मेरी हसरतों का है मुसाफिर,
कि घर मेरा लोग पहले से जलाये बेठें हैं;

इस तंगदिल जहाँ में अब कोई ठिकाना न रहा ,
कि घुटनों पे सर को हम टिकाये बेठें हैं;

खामोश मेरे संग शहर की गलियां सब हुई,
जाने किस की आहट पे कान लगायें बेठें हैं;

उम्र भर ख़ुद को ही तलाशता रहा हूँ मैं,
चेहरों के इस जंगल में पहचान गवाए बेठें हैं;

खो गई है मंजिल मेरी जमाने की अधेरीं राहों में,
ढूंढकर लाने को हम बेशक दीया जलाये बेठें हैं;

दर्द मेरा बढ़कर ख़ुद दवा हो गया है,
कहाँ किसी हकीम के आरजू लगाये बेठें हैं;

एक-एक कर सब अपने बेगाने हुयें हैं,
उनसे भी ये उम्मीद खैर लगाये बेठें हैं;

बिखर गया हूँ यूँ तो मै जार-जार होकर,
लोग अब भी घात मगर लगाये बेठें हैं;

मरने की कोई वाजिब सबब नहीं मिलता,
लोग मरने के तरीके खैर सुझाये बेठें हैं;

बात नहीं करता क्यों सीधे मुँह से कोई,
जाने क्यों लोग हमसे ख़ार खाए बेठें हैं;

जुबान से नाता तोड़ लिया है हमने जबसे,
खामोशी से दिल अपना लगाये बेठें हैं;

ये किसने नाम लिया खुशी कि आंसू निकल पड़े,
ज़नाजा जिसका सर पे हम उठाये बेठें हैं;

अब तो ग़म से दोस्ती हो गई है इस कदर,
चेहरे को भी तस्वीर-ऐ-ग़म बनाये बेठें हैं;

आते थे सपने कभी अब तो नींद भी नहीं आती,
निगाहों के चिराग़ एक मुद्दत से जलाये बेठें हैं;

कौन कहता है मेरी फ़िक्र नहीं किसी को,
लोग क़ब्र मेरी पहले से खुदाए बेठें हैं;

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